जब कोई मनुष्य अपने शरीर, मन, बुद्धि, तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता है (कृष्णसेवा में लगा रहता है), तब उसमें अहंकार नहीं रहता और वह इस संसार में रहते हुए भी मुक्त रहता है।
वह सब भौतिक काम करते हुए भी मुक्त रहता है। क्योंकि उसका अहंकार समाप्त हो जाता है और वह समझ जाता है कि वह यह शरीर नहीं है, न ही यह शरीर उसका है।
वह जानता है कि वह स्वयं श्रीकृष्ण का है और यह शरीर भी श्रीकृष्ण का ही है, उनकी सम्पत्ति है।
जब वह शरीर, मन, बुद्धि, वाणी, जीवन, सम्पत्ति आदि से उत्पन्न हर वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, श्रीकृष्ण की सेवा में लगाता है, तो वह तुरन्त श्रीकृष्ण से जुड़ जाता है।
वह श्रीकृष्ण से एकरूप हो जाता है, और उस अहंकार से रहित हो जाता है जिसके कारण मनुष्य सोचता है कि मैं यह शरीर हूँ।
यही कृष्णभावनामृत की पूर्ण अवस्था है श्रीमद् भगवद् गीता, अध्याय 5, श्लोक 11 तात्पर्य।
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