नरवर - जैसा की सर्वविदित है कि मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में स्थित राजा नल का किला अपनी पौराणिक गाथाओं के कारण संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है नरवर किले की प्रसिद्धि का मुख्य कारण पौराणिक महापात्र राजा नल-दमयंती है इन्हीं की वजह से ही नरवर की पहचान कायम है।
नरवर किला विंध्याचल पर्वत श्रंखला की एक ऊंची पहाड़ी पर सिंध नदी के किनारे स्थित है यह किला नरवर की सतह से 474 फीट की ऊंचाई पर स्थित है समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 1600 फीट है। यह किला 8 किलोमीटर की परिधि में बना हुआ है। सुरक्षा की दृष्टि से है किला अजेय है क्योंकि यह चतुष्कोणीय घेरे में स्थित है। भारतवर्ष में चित्तौड़गढ़ के किले के बाद नरवर किले का स्थान आता है।
नरवर के समीप कितनी ही शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनमें नरवर को निषद देश तथा नलपुर लिखा गया है। महाभारत में वन पर्व के अंतर्गत निषद चरित्र में राजा नल और रानी दमयंती की कथा विस्तार पूर्वक वर्णन आई है। राजा नल दमयंती के उपरांत आगे चलकर नरवर के किले में ढोला मारू राजा हुए। जिसमें ढोला नरवर की राजा तथा मारू राजस्थान की राजकुमारी थी ढोला मारु का प्रेम प्रसंग इतिहास के पन्नों पर अंकित है। इसके पश्चात त्रेता युग में नरवर श्री राम के पुत्र कुश के राज्य के अंतर्गत आया जिससे कछवाहा वंश की उत्पत्ति हुई। तदोपरांत नरवर कई राजवंशों के अधिकार में रहा। जिसमे नागवंशी राजाओं का 125 ई. से 344 ई. तक राज्य रहा। जिनमें गणपति नांग प्रतापी राजा हुए। 4वी एवं 5वी शताब्दी में गुप्त वंश का राज रहा। 383 ई. में नरवर में श्री पाल नामक राजा हुए.
जिन्होंने नरवर किले को पुनः बसाया
इसके पश्चात 6वी एवं 7वीं सदी में वर्धन वंश का राज्य यहां रहा। 9 वी में इस दुर्ग पर राजपूत कछवाहो का राज्य हुआ जो 10 वी शताब्दी तक चला। 11वीं शताब्दी में यह राज्य गुर्जर प्रतिहारो के अंतर्गत रहा। 1129 ईस्वी में यह दुर्ग चाहत देव के आधिपत्य में रहा इसके पश्चात इस दुर्ग पर बादशाहा नसीरुद्दीन का अधिकार हो गया। 13 वी से 14 वी शताब्दी के मध्य में कुतुबुद्दीन ऐबक, अलाउद्दीन खिलजी तथा अन्य राजाओं का यहां अधिकार रहा।
1410 ई. में सिकंदर लोदी के आक्रमण के फल स्वरुप यह किला उसके अधीन हो गया। सिकंदर लोदी ने यहां एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया। 1945 में बादशाह हुमायूं का प्रभाव स्थापित हो गया। नरवर के कछवाहा राजाओं को निरंतर अपने जीवन में मुगलों से संघर्ष करते रहना पड़ा। 16 वी ई. मे फिर से कछवा राजाओं का राज्य आया। 17 ईसवी में नरवर किले के राजा गज सिंह कछवाहा ने दक्षिण के युद्धों में राजपूतानी शौर्य का परिचय दिया और 1725 इसी में हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। राजा गज सिंह दक्षिण के युद्ध में अपने पुरोहित की अंतिम इच्छा से उसका रुपट्टा नरवर भेजा और उनकी दोनों पत्नियां लक्ष्मी देवी और स्वरूप देवी सती हो गई। उनकी स्मृति में उनके पुत्रों ने सती स्मारक बनवाए जो आज भी इस किले की 8 कुआ 9 बावड़ी के नजदीक स्थित है। यह सती स्मारक 1823 ई. में बनवाए गए। 18 वीं सदी में नरवर किले के अंतिम कछवाहा राजा माधौ सिंह राजपूत थे। इसके पश्चात 19वीं शताब्दी में यह सिंधिया राजवंश के अधीन हो गया। जिसके उपलक्ष में उन्होंने एक खम्बी छतरी का निर्माण निर्माण कराया। इसे विजय स्तंभ भी कहा जाता है। इस प्रकार से नरवर में कई सारे पराक्रमी एवं प्रतापी राजा हुए हैं।
नरवर किले के चारों ओर विशाल परकोटे बने हुए है, परकोटो से लगी हुई पूर्व दिशा में गहरी खाई है। नरवर में प्रवेश के लिए चार मुख्य द्वार है जिनमें उत्तर दिशा से आने पर गंज दरवाजा, पूर्व दिशा से आने पर धुवाई दरवाजा, मुबारकपुर से आने पर मुबारकपुर (खिड़की) दरवाजा तथा दक्षिण दिशा से आने पर जिंदा वली दरवाजा जो बरसों पहले गिर चुका है, इसके अवशेष अभी भी शेष है, तथा अलावा किले की पश्चिम दिशा में पीछे की तरफ से आने पर उरवाहा गेट पड़ता है। इसके अलावा किले की ऊपरी परकोटे के चहुओर कई सारे द्वार है। इनमे प्रमुख रूप से हवापौर द्वार, पश्चिम में गोमुख दरवाजा, उत्तर में ढोला दरवाजा तथा दक्षिण में दक्षिणी गेट मिलता है जो लखना ताल से दृष्टिगोचर होता है। तथा इन सबके बीच में कई सारी छोटे-छोटे गुप्त द्वार भी है जो खंडार अवस्था में है किले के परकोटे पर चहु ओर कई सारे बुर्ज बने हुए हैं जिन पर तोपें रखी जाती थी। जिसमें से शेष तोपें किले की कचहरी महल में रखी हुई है।
किले की सतह के ऊपर दो प्रकार के मोटे मोटे मजबूत पर बूटी बने हुए हैं जो किले की सतह को तीन भागों में विभक्त करते हैं। इन तीन भागों को मौजलोक , ढोला अहाता तथा मदार अहाता कहते हैं। नरवर किले में कई सारी गुप्त सुरंगे बनी हुई है जो किले की चारों तरफ अलग-अलग दिशाओं में विभिन्न प्रकार की बावड़ीओ में जाकर खुलती है। नरवर के इलाके में आज भी ऐसी कई सारी बावड़िया दृष्टिगोचर होती है। इन सुरंगों का प्रयोग किले के राजा आपातकालीन परिस्थितियों में करते थे।
जब पर्यटक नरवर किला देखने को जाता है तो वह प्रमुख रूप से 2 मार्गों के द्वारा ही किले पर पहुंच सकता है जिसमें प्रथम मार्ग एक खम्बी छत्री के दरवाजे से होकर जाता है तथा द्वितीय मार्ग और उरवाहा ग्राम के जैन मंदिर से एक दरवाजे से होकर जाता है जिसे उरवाहा गेट कहते है। इस दरवाजे का निर्माण श्रीपाल राजा ने विक्रम संवत 8 में करवाया था। इस गेट से पर्यटक गोमुख मंदिर को देखते हुए किले पर पहुंचता है।
जब पर्यटक एक खम्बी द्वार से किले पर जाता है तो उसे किले का प्रथम द्वार मिलता है जिसे पिसनाई दरवाजा कहते हैं। इसके उपरांत दूसरा दरवाजा मिलता है जिसे कोतवाली दरवाजा (सैयद दरवाजा) कहते हैं। इसके बाद तीसरा गणेश द्वार तथा चौथा एवं अंतिम मुख्य द्वार हवापौर दरवाजा दृष्टिगोचर होता है।
एक जानकारी के अनुसार सिंधिया शासक स्वर्गीय सर इज हाईनेस श्री मंत प्रथम माधौराव सिंधिया जी ने दिनांक 23 दिसंबर 1901 में नरवर आए, वह शाम के समय नरवर किला देखने गए। उन्होंने देखा कि किले में मुस्तैद हमला ठीक से काम नहीं करता है। उन्होंने नरवर के पुनःनिर्माण की दिशा में विशेष रुचि ली थी। उन्होंने नरवर किले में हवापौर, चर्च तथा कई महलों का जीर्णाेद्धार कराया।
जब पर्यटक हवापौर के उपरांत किले मे दाखिल होता है तो वह माजलोक भाग मे प्रवेश करता है। नरवर के किले को तीन भागों में विभक्त किया गया है जिनमें केले के केंद्रीय घेरे का नाम माजलोक है जिसे माजलोक अहाता कहते हैं। दूसरे भाग जो पश्चिम दिशा में है उसे ढोला अहाता कहते है। अंतिम अहाता किले का दक्षिणी भाग है जिसे मदार अहाता कहते हैं इस भाग में मदार साहब की दरगाह है।
१.माजलोक अहाता - इस अहाते में किले के महल एवं मंदिर स्थित है। इस अहाते में मुख्य रूप से छीप महल एवं राजाओं के शाही स्नानागार, छतरी महल, लदाऊ बंगला, पुरानी चक्की महल, फुलवा महल, ढोला-मारू का दरबार, रेवा-परेवा महल, कचहरी महल, सुनहरी महल, रंग महल, सिकन्दर लोधी की मस्जिद, नागर मोहन जी का मंदिर, मीना बाजार, मीना बाजार, विष्णु-लक्ष्मी मंदिर, आठ कुआ नौ वाबड़ी( 8 कुआ 9 वाबड़ी 166 पनिहारी) , उर्मिला लक्ष्मण मंदिर, मकरध्वज मंदिर, रोमन कैथोलिक चर्च, आल्हा ऊदल का अखाड़ा, गोमुख रामजानकी मंदिर, मनसा देवी मंदिर, सिद्ध खो, पुरानी जेल, मराठा सरदार इंगले की हवेली, भक्त शिरोमणि कर्मा बाई जी की हवेली एवं अन्य किले में निवासरत लोगो की बस्ती आदि।
२. पश्चिम अहाता (ढोला अहाता) - इस अहाते के दरवाजे में राजा नल के समय के केसर के धब्बे मौजूद है तथा यहां के कंगूरे झुके हुए हैं। यहां से मोहनी सागर बांध का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। जो पर्यटकों के मन को बहुत भाता है।
३. मदार अहाता(गूजर अहाता) - इस अहाते में मुख्य रूप से पसर देवी जी का मंदिर, कटोरा ताल, कटोरा ताल के चारों तरफ घोड़ो के अस्तवल, मदार साहब की दरगाह, छत्रियाँ, चंदन तलैया तथा पत्थर की खदान आदि स्थित है।
पर्यटन की दृष्टि से ऐतिहासिक धरोहर नरवर के नल दमयंती किले में अनगिनत पुरातत्व संपदाओं की भरमार है। युवाओं को चाहिए कि किला घूमते समय पुरातत्व संपदाओं से छेड़छाड़ ना करें। ऐसी अनमोल पुरातात्विक संपदा सुरक्षित रह सके। जिससे भावी पीढ़ी अपने देश की संस्कृति से रूबरू हो सकें।
राजा नल-दमयंती, राजा नल का पूर्व जन्म-
श्री शिव महापुराण के अनुसार अर्बुदोचल पर्वत के समीप भील वंश में आहुक नामक एक भील निवास करता था उसकी पत्नी का नाम आहुका था। वह बड़ी ही पतिव्रता औरत थी। दोनों पति-पत्नी शिव उपासक थे। एक समय उनकी कुटिया पर भगवान शंकर यदि के रूप में पधारे। भील ने यतीश का विधिपूर्वक पूजन किया।
संध्याकाल के समय यदि नाथ ने आहुक से कहा कि मुझे रात्रि विश्राम के लिए थोड़ा सा स्थान दो मैं प्रातः काल यहां से चला जाऊंगा। भील ने कहा कि मेरे पास थोड़ा सा स्थान है इसमें आप कैसे रहोगे यह सुनकर यति नाथ जाने लगे। इस पर भीलनी ने कहा कि यह हमारे अतिथि है इनको नाराज ना करें। आप सन्यासी सहित घर में रहिए तथा मैं घर के बाहर रह जाऊंगी। भील ने कहा तुम नहीं। मैं घर के बाहर रहूंगा तुम अतिथि सहित घर के अंदर रहना। निदान वह भील अपने अस्त्रों सहित घर के बाहर रुका तथा अतिथि और उसकी पत्नी घर के भीतर रहे। किंतु इधर अर्धरात्रि में हिंसक एवं पशुओं में भील की हत्या कर दी। प्रातः काल सन्यासी में घर के बाहर अगर देखा कि भील को सिंह आदि जंगली जानवर भक्षण कर गए हैं इससे उन्हें बहुत दुख हुआ। भीलनी ने दुखद रहते यदि नाथ को समझाया कि आप निराश ना होइए अतिथि सेवा में अगर पुराण भी त्यागना पड़े तो यह धर्म है। मेरा क्या है मैं तो इनके साथ सती हो जाऊंगी। यह सब कथन सुनकर शिव जी अपने असली स्वरूप में प्रकट हो गए और भीलनी को धन्य धन्य कहा। और आशीर्वाद दिया कि अगले जन्म में तुम विदर्भ देश की राजकुमारी दमयंती बनोगी तथा भील निषद देश के राजा नल के रूप में जाने जाएंगे और मैं स्वयं हंस के रूप में आकर तुम्हारा मिलन कराऊंगा। यह कथन कहकर शिव जी अंतर्ध्यान हो गए तथा उसी स्थान नंदीश्वर लिंग के रूप में प्रकट हुए। जिन्हें हम श्अचलेश्वर महादेवश् (ग्वालियर) के नाम से जानते हैं। यह उस समय निषद क्षेत्र था।
राजा नल का जन्म-
निषद देश (नरवर) के राजा वीरसेन का विवाह मंझा नामक स्त्री से हुआ। कई वर्ष बीत जाने के पश्चात भी इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हुई। राजा ने सुनैना नाम की स्त्री से उनके सुंदरता के मोह जाल में फसकर दूसरा विवाह किया।( सुनैना रानी के लिए राजा वीर सेन ने सुनहरी महल बनवाया जो स्वर्ण बेल बूटाओ से अलंकृत था यह महल आज भी जीर्ण शीर्ण अवस्था में है) इसके पश्चात शिवजी के वरदान के फल स्वरुप मंझा देवी गर्भवती हो गई। जिससे राजा की आशक्ति प्रथम रानी की ओर बढ़ने लगी यह सब सुनैना से ना देखा गया। और उसने राजा को अपनी बातों में फंसाकर मंझा देवी को देश निकाला दिलवा दिया तथा अपने सेनापति को मंझा देवी की हत्या करने का आदेश दे दिया।
जब सेनापति रानी मंझा को जंगल में छोड़ने गया और उन्हें जंगल में ऋषि मुनियों के आश्रम में जाकर उनके सानिध्य में छोड़ा।( वर्तमान में रानी घाटी) सेनापति ने मंझा देवी से कहा की मां मैं आपका सेवक हूं मैंने आपका नमक खाया है और आपने मुझे अपने पुत्र के समान माना है। मैं आप की हत्या के बारे मे सोच भी नहीं कर सकता आप मुझे सिर्फ अपने वस्त्र दे दीजिए। मैं हिरणी की आंखें ले जाकर आपके वस्त्रों सहित उन्हें दिखा दूंगा जिससे उन्हें विश्वास हो जाएगा कि मैंने आप की हत्या कर दी। क्योंकि मंझा देवी की आंख हिरणी जैसी थी। रानी ने सेनापति को अपने वस्त्र दे दिए तथा सेनापति ने हिरणी की आंख ले जाकर सुनैना को दिखा दी जिससे उन्हें विश्वास हो गया की पहली रानी की हत्या हो गई है। इधर कुछ माह पश्चात राजा नल का जन्म हुआ।
राजा नल का बाल्यकाल-
ऐसी किंवदंती चली आ रही है की जब राजा नल की मां जंगल में लकड़ियां बटोरने के लिए जाती है तब राजा नल जंगल में शेर के शावकों के साथ खेलते थे तथा शेरनी का दूध पीते थे जिस कारण से उन्हें सिंह तुल्य पराक्रम वाला बोला जाने लगा। जब राजा नल कुछ बरस के होने लगे जो ऋषि-मुनियों ने उनकी शिक्षा-दीक्षा आरंभ की। राजा नल पर ऐसी दैवीय कृपा थी कि जब उनके गुरु उन्हें कुछ विद्या सिखाने के पश्चात जब वापस उनसे पूछते थे तो वह सिखाई हुई विद्या को कई गुना बढ़ा कर बता देते थे। देखते ही देखते राजा नल शस्त्र विद्या में भी निपुण हो गए। इतनी तीव्र गति से राजा नल को शस्त्र विद्या में निपुण होता देख ऋषि-मुनियों ने उनकी माता से कहा कि यह किशोरावस्था में निषद देश का राजा बनेगा। जिसकी यस गाथा युवाओं एवं तक गाई जाएगी।
राजा नल की नरवर विजय-
एक दिन राजा नल ने अपनी मां से अपने परिवार एवं पिता के बारे में जानने की इच्छा जाहिर की। ऋषि-मुनियों ने मंझा देवी से कहा कि अब वह समय आ गया है कि राजा नल नरवर के राजा बने। माता ने उन्हें पूरी कथा सुनाई। जिससे नल बहुत दुखी हुये। अपने गुरुओं की आज्ञा पाकर अपनी मां को साथ में लेकर राजा नल नरवर आ गए तथा उन्होंने युद्ध का ऐलान कर दिया। और एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें राजा नल की विजय हुई। वीरसेन में अपनी गलती की मंझा देवी से क्षमा मांगी तथा सुनैना व उनके पुत्र पुष्कर सहित वन में तपस्या के लिए चले गए।
इसके पश्चात राजा नल अपने राज्य का संचालन करने लगे तथा रानी घाटी में एक मंदिर का निर्माण कराया तथा एक किले नुमा गढ़ी भी बनवाई एवं कई स्थानों पर शिव मंदिर बनवाए।
राजा नल का स्वयंवर-
एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा जो स्वर्ण पंख युक्त हंस थे उनमें एक हंस घायल अवस्था में था( यह हंस रूप में शिवजी थे) उसे राजा ने पकड़ लिया। ऐसी किंवदंती चली आ रही है कि वह हंस मनुष्यों से भी बात करता था। राजा नल ले कुछ हंस से कहा कि जब तक आप ठीक नहीं हो जाते आप यही रहिए। इसका उत्तर देते हुए हंस ने कहा राजन मीरा भजन मोती है मैं विदर्भ देश की राजकुमारी दमयंती का हंस हूं वह मुझे मोती चुगाती है। राजा नल ने कहा कि आप जब तक यहां हैं तब तक जितनी मोती चुगना चाहे चुग सकते हैं। राजा नल ने 6 माह तक स्वयं उस हंस की सेवा की स्वस्थ होने के पश्चात जब हम वापस विदर्भ देश जाने लगा तो उसने राजा नल से कहा कि इस अहसान के बदले का ऋण आपका स्वयंबर कराकर उतारेंगे। हंस उड़कर विदर्भ देश वापस आ गए। राजकुमारी दमयंती उन्हें देख कर बड़ी खुशी हुई। हंस ने राजकुमारी दमयंती के सामने राजा नल के गुणों का बखान किया। तथा कहां की निषध देश में एक नल नामक बड़ा ही प्रताप शूरवीर तथा अश्विनी कुमार के समान सुंदर इधर आया है मनुष्यों में उसके समान धरती पर कोई और नहीं। मानो वह मूर्तिमान कामदेव है। हंसों के द्वारा यह सब कथन सुनने पर दमयंती के मन में मानो राजा नल के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। दमयंती ने हंसों से कहा कि तुम निषद देश जाकर नल से मेरी बात कहना हंस ने निषद जी आ कर राजकुमारी दमयन्ती के गुणों का बखान किया। दमयंती दिन रात हर समय राजा नल का ध्यान करती रहती। उनका शरीर धूमिल वा दुबला हो गया। यह सब देख कर उनके पिता राजा भीष्मक ने मन में सोचा कि मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गई है लिहाजा इसका स्वयंवर का आयोजन किया जाए। राजा ने सभी राजाओं को स्वयंवर का निमंत्रण भेजा। सभी राजा विदर्भ देश में पहुंचे। सभी राजा एक पंक्ति में बैठे हुए दमयंती एक एक करके आगे बढ़ती गई आगे जाकर उन्होंने देखा की कामदेव के समान पाँच राजा एक साथ बैठे हुए हैं उनमें से एक राजा नल थे शेष चार लोग राजा नल का भेष धारण किए हुए स्वयं देवता थे ।वह समझ गई कि इनमें से एक राजा नल है। तथा उन्होंने राजा नल और देवताओं की पहचान कर ली और राजा नल को वरण कर लिया। तत्पश्चात राजा नल का विवाह संपन्न हुआ। इसके पश्चात देवताओ राजा नल को आठ आशीर्वाद दिए। तथा वहां से चले गए जाते समय उन्हें रास्ते में कलयुग मिला तथा उन्होंने कलयुग से पूछा कि तुम कहां जा रहे हैं कलयुग ने उत्तर दिया कि मैं रानी दमयंती के स्वयंवर में जा रहा हूं। देवताओं ने कहा कि वह स्वयंवर तो कब का पूर्ण हो चुका है राजकुमारी दमयंती ने राजा नल को वरण कर लिया है। इस पर कलयुग क्रोधित हो गया और मन में विचार किया कि वह 1 दिन राजा नल और दमयंती को अलग कर देगा।
कलयुग का दुर्भाव, नल का जुएं में हारना तथा नगर से निर्वासन-
राजा भीष्मक की आज्ञा से राजा नल और दमयंती नरवर आ रहे। उनके पीछे पीछे कलयुग भी नरवर आ गया और 12 वर्ष तक नरवर में रहा। वह 12 वर्षों तक प्रतीक्षा करता रहा कि जिस दिन राजा नल पर कोई भी अशुद्धि हो या त्रुटि हो तो वह उनके शरीर में प्रवेश कर जाए। एक दिन राजा नल सायंकाल के समय लघु शंका से निवृत्त होकर बगैर पैर धोए संध्या वंदन करने बैठ गए इसका फायदा उठाकर कलयुग उनके शरीर में प्रवेश कर गया। इधर दमयंती जंगलों में रह रहे अपने देवर पुष्कर को नरवर ले आई। पुष्कर ने राजा नल के सामने जुए खेलने का प्रस्ताव रखा। दोनों में जुआ प्रारंभ हुआ तथा कलयुग के प्रभाव के कारण राजा नल जुए में अपना संपूर्ण राज्य पाठ हार गए। पुष्कर ने राजा नल को देश निकाला दे दिया तथा नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई भी राजा नल की सहायता करेगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। राजा नल 3 दिन तक नरवर नगर में नदी किनारे रुके रहे तथा अपने किले को निहारते रहे किंतु किसी ने भी उनकी सहायता नहीं की। तथा उसके पश्चात वह जंगलों की ओर निकल दिए और वह येति नामक स्थान पर पहुंचे। वहां पर उन्होंने शनि देव की आराधना की। क्योंकि उन पर उस समय शनि महादशा चल रही थी। इसके पश्चात वह चलते चलते करौली नामक स्थान पर पहुंचे। उन्होंने एक बूढ़ी माता से पीने के लिए पानी मांगा। उस माता ने राजा नल को पानी पिलाया एवं भोजन भी कराया। सुबह-सुबह जब वह माता गेहूं पीस रही थी तो वह गीत गुनगुना रही थी और फिर रोने लग जाती। इस पर राजा नल ने बूढ़ी माता से उनके रोने का कारण पूछा। माता ने कहा कि यहां कालीसिल नदी के किनारे एक दानव रोज गांव के एक बालक को खाता है आज मेरी बालक की बारी है। राजा नल ने कहा कि मां आप कतई चिंता ना करें आज मैं आपका बालक बनकर उस दानव के पास जाऊंगा। राजा नल उस दानव के पास गई तथा दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। किंतु राजा नल थके हुए होने के कारण उस दानव का वध नहीं कर पा रहे थे। अंततः दुर्गा जी प्रकट हुई और उस दानव का वध किया। दुर्गा जी ने राजा नल को आशीर्वाद दिया कहा कि तुम सदा सत्य पर चलना तुम्हारी विजय अवश्य होगी यह तुम्हारी परीक्षा का समय है। इसके पश्चात राजा नल जंगलों में से होते हुए एक स्थान पर पहुंचे। राजा नल ले दमयंती से कहा की यहां से कई सारे रास्ते जाते हैं इनमें से एक रास्ता विदर्भ की ओर जाता है तुम वहां चली जाओ मैं अपना समय जंगलों में ही व्यतीत कर लूंगा तथा वनवास पूर्ण होने पर तुम्हारे पास आ जाऊंगा। किंतु दमयंती नहीं मानी। उन्होंने रात्रि विश्राम उसी स्थान पर किया। रात्रि के समय कुछ पक्षी आकर राजा नल के समीप बैठ गए राजा ने उन पक्षियों को पकड़ने के लिए अपना पहना हुआ अंग वस्त्र उन पक्षियों के ऊपर डाल दिया किंतु वह पक्षी उस अंग वस्त्र को भी लेकर उड़ गए। तथा राजा नल निर्वस्त्र रह गए। राजा नल ने दमयंती की साड़ी का एक टुकड़ा काटकर लपेट लिया और दमयंती को सोता हुआ है छोड़कर जंगल की ओर निकल दिए उन्होंने सोचा कि यहां से दमयंती का मायका समीप है वह जब उठेगी तुम मुझे ना देख कर अपने मायके की ओर चली जाएगी। जब प्रातः काल दमयंती की नींद टूटी तो वह राजा को अपने पास ना देख कर विलाप करने लगी। तथा जंगलों में उनको ढूंढते ढूंढते विभिन्न घटनाओं को पार करते हुए चंदेरी जा पहुंची। चंदेरी में पहुंचकर उन्होंने दासी के रूप में राज महल में अपनी मौसी के यहां नौकरी कर ली। लेकिन उन्होंने राजमाता के सामने अपनी पहचान नहीं बताई तथा कहा कि वह घटना बस अपने पति से दूर हो गई हैं और एक शर्त रखी कि वह किसी का झूठा नहीं खाएंगे पर पुरुष से बात नहीं करेंगे न हीं देखेंगी। राजमाता को उनकी यह बात बहुत पसंद आई और अपनी बेटी सुनंदा की सखी बनाकर उनको रख लिया।
इधर राजा नल जंगलों में विचरण कर रहे थे तभी उन्होंने देखा कि जंगल में एक जगह आग लगी हुई है और कोई उन्हें पुकार रहा है। वह आग के अंदर घुस गए क्योंकि देवताओं की वरदान के फल स्वरुप उनका आग कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती थी। उन्होंने एक कर्काेटक नामक नाग की रक्षा की। कर्काेटक नाग ने उन्हें डस लिया। राजा नल ने नाग से कहा कि मैंने तो आपके प्राणों की रक्षा की किंतु आपने मुझे ही डस लिया। नाग ने कहा कि राजन मेरे डसने से आपको कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा मेरे विस का प्रभाव आपके अंदर घुसे हुए कलयुग पर पड़ेगा जिससे वह बाहर निकल जाएगा। कर्काेटक नाग के प्रभाव से राजा नल का स्वरूप काला पड़ गया। तथा राजा नल को नाग ने एक दिव्य वस्त्र दिया और कहा कि आप जब भी इस वस्त्र को उड़ेंगे तो आप अपने असली स्वरूप में आ जाएगे। और कहा कि आप अपना नाम वाहुक रखिये और यहां से अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण कि यहां जाइए। आप उनसे कहना कि मैं आपको अश्व विद्या सिखाऊंगा क्योंकि मैं राजा नल का सारथी हूं और आप मुझे जुआ खेलने की विद्या सिखाइए। क्योंकि वह जुआ खेलने में प्रवीण थे। अयोध्या नरेश ने उन्हें घुड़साल का अध्यक्ष बना दिया। इधर राजा भीष्म ने ब्राह्मणों के कई दल राजा नल एवं दमयंती का पता लगाने के लिए भेजें। ब्राह्मणों ने राजा नल एवं दमयंती का पता लगाया एवं राजा को बताया। तथा कहा कि राजा नल अयोध्या में ऋतूपर्ण के यहां सारथी बनकर जीवन यापन कर रहे हैं तथा दमयंती अपनी मौसी के यहां दासी के भेष में रह रही हैं। राजा भीष्मक ने अपने पुत्र को दमयंती को वापस लाने के लिए भेजा। इधर जब चंदेरी की राजमाता को पता चला कि यह दमयंती है तो उन्होंने दमयंती से माफी मांगी एवं उनसे लिपट कर रोने लगी। दमयंती अपने भाई के साथ विदर्भ देश में आ गयी। उन्होंने अपने पिता के साथ वार्तालाप करके एक योजना बनाई तथा सुदेव नामक ब्राह्मण से अयोध्या में राजकुमारी दमयंती के स्वयंवर का एक झूठा संदेश पहुंचाया। यह समाचार सुनकर ऋतु पर्ण से रहा ना गया और उसने वाहुक से कहा की तुरंत मुझे विदर्भ देश ले चलो। वाहुक और अयोध्या नरेश विदर्भ देश की ओर चल दिए रास्ते में राजा नल(वाहुक) को एक उल्टी हुई। जिस कारण कर्काेटक नाग के विस से कलयुग उनके शरीर से बाहर निकल गया। और वह सायंकाल विदर्भ देश आ पहुंचे। राजा भीष्मक ने अयोध्या नरेश का सत्कार किया। वाहुक को घुड़साल में स्थान दिया गया। रानी दमयंती ने उनकी परीक्षा ली तथा खाना बनाने के लिए उन्हें सिर्फ आटा दिया क्योंकि उनको ज्ञात था कि राजा नल देवताओं के वरदान के फल स्वरुप सिर्फ आटे से ही खाना बना लेते हैं। उन्होंने राजा नल को छुपकर देखा और वही हुआ जो वह सोच रही थी। रानी दमयंती अपने पुत्र व पुत्री इंद्रसेन और इंद्रसेना को लेकर राजा नल के पास आ गई और दोनों में पूरी रात वार्ता हुई। दूसरे दिवस राजा नल दिव्य वस्त्र को उड़कर अपने असली स्वरूप में आ गए। तथा राजा भीष्मक ने अयोध्या नरेश से क्षमा मांगी। विदर्भ राज से आज्ञा पाकर राजा नल नरवर आ गए और पुनः पुष्कर को जुए में हराकर अपना राजपाट वापस ले लिया। और सुख पूर्वक अपने राज्य का संचालन करने लगे। राजा नल ने पुष्कर को क्षमा कर निषद देश के एक हिस्से में भेज दिया तथा जहां उसने शहर बसाया तथा वहां ब्रह्मा जी की उपासना की। वर्तमान में इस शहर को राजस्थान के पुष्कर शहर के नाम से जाना जाता है। इस पूरी कथा को महाभारत के दौरान बृहदश्व ऋषि ने युधिष्ठिर को सुनाया है इसकी पूरी कथा श्री शिव पुराण एवं महाभारत पुराण में विस्तारपूर्वक आई है।
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