रक्षाबंधन विशेष - रक्षाबंधन पर बहनें भाईयों को दे हेलमेट का उपहार तो भाई बहनों को दे आत्मरक्षा के लिए शस्त्र उपहार, शनिवार को किस समय रहेगा राखी बांधना शुभ, देखे मुहूर्त - Kolaras

कोलारस - शनिवार को सनातन वैष्णव संप्रदाय के लोग भाई बहन के पवित्र पर्व रक्षाबंधन को मानेंगे देशभर में भाई के माथे पर बहाने मंगल तिलक लगाकर रक्षा का सूत्र बांधती हैं और यमराज से अपने भाई की दीर्घायु प्रदान करने की कामना करती हैं रक्षाबंधन के पवित्र पर्व पर बहने अपने भाई अथवा पलक से स्वयं की रक्षा के लिए वचन भी इस दौरान मांगती हैं रक्षाबंधन का पवित्र पर्व वैष्णव संप्रदाय में हजारों वर्ष पूर्व से चल रहा है इसका प्रारंभ जब राजा बलि के यहां श्री हरि विष्णु भगवान अपना वचन पूरा करने के लिए काफ़ी लंबी अवधि तक रुके रहे तब उस दौरान माता लक्ष्मी ने अपने पति की वापसी के लिए राजा बलि  के माथे पर मंगल तिलक एवं रक्षा सूत्र बांधकर अपने पति की वापसी की मांग की थी और राजा बलि ने माता लक्ष्मी के आदेश पर श्री हरि विष्णु भगवान को अपने यहां से मुक्त किया था इस समय से भाई बहनों के मंगल महापर्व का प्रारंभ हुआ और रक्षाबंधन का महापर्व मनाया जाने लगा इस वर्ष रक्षाबंधन का महापर्व 09 अगस्त शनिवार को मनाया जाएगा रक्षाबंधन के पवित्र पर्व पर हम बहनों से आशा करते है कि वे भाईयों के माथे पर मंगल तिलक लगाने के साथ रक्षा सूत्र यानी की राखी तो बांधे ही साथ ही भाई को नारियल के साथ हेलमेट को देकर भाई से आवश्यक रूप से लगाने एवं स्वयं की रक्षा की भी काम इस अवसर पर आवश्यक खिलवाएं भाई भी बहनों को उपहार में वस्त्र एवं अन्य उपहार देने के साथ-साथ शस्त्र का भी उपहार इस पवित्र पर्व पर बहनों को आवश्यक रूप से करना चाहिए शनिवार को मनाए जाने वाला रक्षाबंधन पर्व पर किस समय राखी बांधने से क्या लाभ होगा उसका मुहूर्त कुछ इस प्रकार है।
🌷रक्षाबंधन,
श्रवण पूजन ,श्रावणी उपाकर्म, ऋषि पूजन 🌷
9अगस्त 2025शनिवार 
रक्षाबंधन पर्व मुहूर्त-श्रावण शुक्ल पक्ष १५ शनिवार तारीख ०९.८.२०२५ ई. को दिवा ०७।४९ से ९।२७ तक शुभ, दिवा १२।१७ से १।०९ तक अभिजित, दिवा १२।४३ से २।२१ तक चंचल, दिवा २।२१ से ५।३७ तक लाभ-अमृत वेला में रक्षाबंधन

 रक्षाबन्धन (मदनरत्न- भविष्योत्तरपुराण) - यह श्रावण
शुक्ल पूर्णिमाको होता है। इसमें पराहृव्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि वह दो दिन हो या दोनों ही दिन न हो तो पूर्वा लेनी चाहिये। यदि उस दिन भद्रा हो तो उसका त्याग करना चाहिये। भद्रामें श्रावणी और फाल्गुनी दोनों वर्जित हैं; क्योंकि श्रावणीसे राजाका और फाल्गुनीसे प्रजाका अनिष्ट होता है। व्रतीको चाहिये कि उस दिन प्रातः स्नानादि करके वेदोक्त विधिसे रक्षाबन्धन, पितृतर्पण और ऋषिपूजन करे। शूद्र हो तो मन्त्रवर्जित स्नान-दानादि करे। रक्षाके लिये किसी विचित्र वस्त्र या रेशम आदिकी 'रक्षा' बनावे। उसमें सरसों, सुवर्ण, केसर, चन्दन, अक्षत और दूर्वा रखकर रंगीन सूतके डोरेमें बाँधे और अपने मकानके शुद्ध स्थानमें कलशादि स्थापन करके उसपर उसका यथाविधि पूजन करे। फिर उसे राजा, मन्त्री, वैश्य या शिष्ट शिष्यादिके दाहिने हाथमें 'येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥' इस मन्त्रसे बाँधे। इसके बाँधनेसे वर्षभरतक
 पुत्र-पौत्रादिसहित सब सुखी रहते हैं। * कथा यों है कि एक बार देवता और दानवोंमें बारह वर्षतक युद्ध हुआ, पर देवता विजयी नहीं हुए, तब बृहस्पतिजीने सम्मति दी कि युद्ध रोक देना चाहिये। यह सुनकर इन्द्राणीने कहा कि मैं कल इन्द्रके रक्षा बाँधूंगी, उसके प्रभावसे इनकी रक्षा रहेगी और यह विजयी होंगे। श्रावण शुक्ल पूर्णिमाको वैसा ही किया गया और इन्द्रके साथ सम्पूर्ण देवता विजयी हुए।

 श्रवणपूजन (व्रतोत्सव) - श्रावण शुक्ल पूर्णिमाको

नेत्रहीन माता-पिताका एकमात्र पुत्र श्रवण (जो उनकी दिन-रात सेवा करता था) एक बार रात्रिके समय जल लानेको गया। वहीं कहीं हिरणकी ताकमें दशरथजी छिपे थे। उन्होंने जलसे घड़ेके शब्दको पशुका शब्द समझकर बाण छोड़ दिया, जिससे श्रवणकी मृत्यु हो गयी। यह सुनकर उसके माता-पिता बहुत दुःखी हुए। तब दशरथजीने उनको आश्वासन दिया और अपने अज्ञानमें किये हुए अपराधकी क्षमा-याचना करके श्रावणीको श्रवणपूजाका सर्वत्र प्रचार किया। उस दिनसे सम्पूर्ण सनातनी श्रवणपूजा करते हैं और उक्त रक्षा सर्वप्रथम उसीको अर्पण करते हैं।

(११) ऋषितर्पण (उपाकर्मपद्धति आदि) - यह श्रावण शुक्ल

पूर्णिमाको किया जाता है। इसमें ऋक्, यजुः, सामके स्वाध्यायी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ या वानप्रस्थ किसी आश्रमके हों अपने-अपने वेद, कार्य और क्रियाके अनुकूल कालमें इस कर्मको सम्पन्न करते हैं। इसका आद्योपान्त पूरा विधान यहाँ नहीं लिखा जा सकता और बहुत संक्षिप्त लिखनेसे उपयोगमें भी

(* यः श्रावणे विमलमासि विधानविज्ञो
आस्ते
रक्षाविधानमिदमाचरते
सुखेन परमेण स
पुत्रप्रपौत्रसहितः
वर्षमेकं
ससुहृज्ञ्जनः स्यात् ॥)

 नहीं आ सकता है। अतः सामान्यरूपमें यही लिखना उचित है कि उस दिन नदी आदिके तटवर्ती स्थानमें जाकर यथाविधि स्नान करे। कुशानिर्मित ऋषियोंकी स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करे और रक्षा-पोटलिका बनाकर उसका मार्जन करे। तदनन्तर आगामी वर्षका अध्ययनक्रम नियत करके सायंकालके समय व्रतकी पूर्ति करे। इसमें उपाकर्मपद्धति आदिके अनुसार अनेक कार्य होते हैं, वे सब विद्वानोंसे जानकर यह कर्म प्रतिवर्ष सोपवीती प्रत्येक द्विजको अवश्य करना चाहिये। यद्यपि उपाकर्म चातुर्मासमें किया जाता है और इन दिनों नदियाँ रजस्वला होती हैं, तथापि 'उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रेतस्नाने तथैव च। चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते ।।' इस वसिष्ठ-वाक्यके अनुसार उपाकर्ममें उसका दोष नहीं माना जाता।

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