परमात्मा के निकट वही रह सकता है जो ‘मैं’ और ‘मेरा’ से रहित है - Shrikrishna

अभिमान - एक समय की बात है जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाकर दिया था तब सत्यभामा को इस बात का अभिमान हो गया था की वह सबसे अधिक सुंदर है और भगवान् श्रीकृष्ण की अति प्रिय रानी हैं।

इसी प्रकार सुदर्शन चक्र ने जब इंद्र के वज्र को निष्क्रिय कर दिया, तब से उसे भी यह अभिमान हो गया था कि भगवान् के पास जब युद्ध में कोई उपाय नहीं बचता है तो वह उसकी ही मदद लेते हैं। 

इसी तरह श्री हरि विष्णुजी का वाहन गरुड़जी भी यह समझने लगे की भगवान मेरे बिना कहीं जा ही नहीं सकते  क्योकि मेरी गति का कोई भी मुकाबला ही नहीं कर सकता है।

भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट करने का समय आ गया है। तभी भगवान् श्रीकृष्ण ने लीला रची हनुमानजी का स्मरण किया। 

भगवान् श्रीकृष्ण के स्मरण करते ही हनुमानजी जान गए थे कि उन्हें किस विशेष कार्य के लिए ही स्मरण किया गया है।

अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गरुड़ से कहा- 
हे गरूड़ ! तुम हनुमान जी के पास जाकर यह कहना कि भगवान श्रीराम ने उन्हें द्वारिका बुलाया है, हो सके तो तुम उन्हें अपने साथ ही लेकर आना भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर गरुड़जी हनुमानजी को बुलाने चल पड़े।

गरूड़जी ने हनुमानजी के पास पहुंचकर कहा- हे वानरश्रेष्ठ ! भगवान् श्री राम ने आपको याद किया हैं। आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये मैं आपको शीघ्रता से प्रभु के पास पंहुचा देता हूँ।

हनुमानजी ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, आप चलिए, मैं आता हूँ। गरूड़ ने सोचा पता नहीं हनुमानजी कब पहुंचेंगे? 

खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे ,
मेरा कार्य तो पूरा हो गया। 
मैं चलता हूं। यह सोचकर गरूड़जी शीघ्रता से 
द्वारका की ओर चल पड़े।

इधर द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीराम का रूप धारण किया और सत्यभामा के साथ सिंहासन पर बैठ गए। 
सुदर्शन चक्र को यह आदेश दिया कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करे पाए। 
भगवान की आज्ञा पाकर सुदर्शन चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए।

तभी हनुमानजी द्वार पर पहुंच गए थे। सुदर्शन चक्र ने हनुमान को रोकते हुए ये कहा कि आप बिना आज्ञा के अंदर नहीं जा सकते, हनुमानजी सुदर्शन चक्र को मुँह में रखकर शीघ्रता से अपने प्रभु से मिलने चले गए।

हनुमानजी ने अंदर जाकर सिहासन पर बैठे प्रभु श्रीराम को प्रणाम किया और 
कहा- “प्रभु, आने में देर तो नहीं हुई?” साथ ही कहा, “प्रभु माता सीता कहां है? आपके पास उनके स्थान पर आज यह कौन दासी बैठी है?” 
सत्यभामा ने यह बात सुनी 
तो वह बहुत ही लज्जित हो गयी थी 
और इसी तरह उनका सारा अहंकार 
चूर हो गया।

तभी थके हुए गरुड़देव भी वहा आ पहुंचे थे। जब गरुड़ जी ने वहां हनुमानजी को देखा तो वह चकित रह गए की मेरी गति से भी तेज गति से हनुमानजी यहाँ कैसे पहुंच गए? इस प्रकार गरुड़जी का भी अहंकार चूर चूर हो गया।

तभी श्रीराम ने हनुमानजी से यह पूछा कि हे पवनपुत्र! तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? 
क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं था?

हनुमानजी ने कहा “मुझे क्षमा करें प्रभु… मैंने सोचा आपके दर्शनों में विलंब होगा… इसलिए इस चक्र से उलझा नहीं, उसे मैंने अपने मुंह में दबा लिया था।” 
यह कहकर हनुमान जी ने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के चरणों में 
रख दिया।

इस प्रकार सुदर्शन चक्र का भी सारा घमंड समाप्त हो गया था। अब तीनों के घमंड चूर हो गए थे और भगवान् भी यही चाहते थे। सत्यभामा, गरुड़ और सुदर्शन चक्र ने कहा प्रभु आपकी लीला अद्भुत हैं। अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त द्वारा ही दूर किया। 

आपकी जय हो प्रभु!

परमात्मा कभी अपने भक्तों में अभिमान रहने नहीं देते। 
अगर भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामा, गरुड़ और सुदर्शन चक्र का घमंड दूर न करते तो वे तीनो उनके  निकट रह नहीं सकते थे… और

परमात्मा के निकट वही रह सकता है जो ‘मैं’ और ‘मेरा’ से रहित है।

हनुमानजी प्रभु श्रीराम के इतने निकट इसीलिए रह पाए क्योकि न तो प्रभु श्रीराम में अभिमान था न उनके भक्त हनुमान में। न ही कभी भगवान् श्रीराम ने कहा कि मैंने किया है और न ही हनुमान जी ने कहा कि यह मैंने किया है... 
इसलिए दोनों एक हो गए… न अलग थे न अलग रहे। भगवान् श्रीराम से जुड़े व्यक्ति में कभी अभिमान हो ही नहीं सकता…।

आमतौर पर थोड़ी सी शक्तियों से हर किसी को अपने ऊपर अभिमान हो जाता है। ये अहंकार ही इंसान और प्रभु से मिलन में सबसे बड़ी बाधा है इसीलिए मन्दिर में सदैव सिर झुकाकर आने का नियम बनाया गया है। 

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