केरल के सुप्रसिद्ध सन्त कवि गोपालम श्री कृष्ण के पक्के भक्त थे। वे अपना अधिक से अधिक अपना समय ईष्ट की पुजा - पाठ और मनन चिन्तन में लगाया करते थे । यह देखकर कई लोग उनकी हसीं उठाया करते थे । एक बार गोपालम ने अपने कुछ मित्रों को भोजन पर निमन्त्रण दिया । जब सारे मित्र आ चुके तो उनमें से एक ने गोपालम से कहा "हम सब तो आ चुके हैं तुम्हारा सखा कृष्ण कब आएगें उन्हें भी बुलाओ भाई ? यदि उन्हें जल्दी बुला सको तो बुलाओ। फिर हमें भोजन के बाद घर भी जाने मे सुविधा होगी "। अन्य मित्रों ने भी जल्दी बुलाने को कहा
बेचारे गोपालम पशोपेश मे पढ गए। वह जानते थे की मित्रों का यह आग्रह बनावटी है। और बहाने से उसकी हसी उडाना चाहते हैं । आखिर उन्होंने मन ही मन में दयानिधान से प्रार्थना की वे सकटं मे पढ गए हैं हे प्रभु रक्षा करे ।
इतने मे ही दुर से शंख की ध्वनि पास आती सुनाई दी । थोड़ी देर में वह ध्वनि लुप्त हो गयी और मित्रों ने महसुस किया की कोई अदृश्य व्यक्ति यहां आया हुआ है। परन्तु उनको चर्मचक्षुओ से दिखाई नहीं दे रहा है । मगर भक्त शिरोमणि गोपालम के मुख पर तो प्रसन्नता की आभा टपक रही थी वे भक्त वस्ल भगवान की मनमोहन छवि को देखकर सुध-बुध खो बैठे थे और जल्दी से उनका स्तुति गान भी करने लगे । मित्रों से जान लिया कि निश्चय ही कृष्ण भगवान यहां विराजमान हूए है । उनका दर्शन न होते देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने गोपालम से क्षमा मांगी । मगर वे तो अपने इष्ट देव के भजन गान मे तल्लीन थे ।
उनके ये भक्ति गीत "" आनन्दवृतम "" मे संग्रहीत है । भजन समाप्त होने पर गोपालम ने मित्रों के भोजन व्यवस्था की और पुजा ग्रह मे एक थाली अपने इष्ट देव की भी लगाई । भोजन उपरांत मित्रों ने देखा की थाली में एक भी व्यंजन नही । और कोई भोजन कर चुका । और उन मित्रों ने कभी भी गोपालम की हसीं नहीं उडाई ।।
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