प्रभु संकीर्तन - कृष्ण कहते है, भौतिक जगत की आत्मा विष्णु, कृष्ण या परमात्मा है। भगवान की भक्ति का अर्थ है, परमात्मा की सेवा करना। उन सभी की सेवा करना, जो परमात्मा ने बनाई है। जीव भौतिक जगत का नही अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है। जो जीव भक्ति भाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इंद्रियों को वश में रखता है।वह सबो को प्रिय होता है। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नही बंधता। वृक्ष की जड़ में डाला गया जल समस्त पत्तियों तथा टहनियों में फैल जाता है।उसी प्रकार आत्मा की शुद्धता सारे शरीर को शुद्ध कर देती है,उसकी चेतना शुद्ध होती है।अतः उसका मन पूर्णतया नियंत्रण में रहता है।और आत्मा कृष्ण में स्थिर रहती है।फिर भक्त का मन कृष्ण कथा,और कृष्ण से सम्बंधित वस्तुओं पर ही लगा रहता है।वह कृष्ण को अर्पित भोजन के सिवाय कुछ और खाना नही चाहता।और न ही किसी ऐसे स्थान पर जाता, जहाँ कृष्ण सम्बन्धी कार्य न होता हो।कृष्ण भावनामरत में डूबा व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त रहता है, जबकि समान्य व्यक्ति अपने कर्मो के फल के प्रति आसक्त रहता है।भागवद में किसी कर्म के फल की चिंता का कारण परम् सत्य के ज्ञान के बिना कृष्ण भाव मे रहकर कर्म करना बताया है।कृष्णभावनामर्त में सम्पन्न सारे कार्य परम् पद पर है।वे दिव्य होते हैं।कृष्ण भावनामरत में जीव मुक्त रहता है।कृष्ण के अतिरिक्त मुक्ति का और कोई मार्ग नही है।इसलिए परमेश्वर की शरण पाने के लिए केवल नामजप ही सबसे सहज,सरल, सर्वोत्तम सीढ़ी है।भगवान। श्रीकृष्ण अपने भक्तों के सखा भी और गुरु भी हैं। वे प्रेमी और सखा बनकर गुर ज्ञान देते हैं।जय जय श्री राधेकृष्ण जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।
- Blogger Comment
- Facebook Comment
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments:
Post a Comment