हरि और हर का हुआ मिलन, गोपाल मंदिर पहुंची महाकाल की पहली सवारी



विश्व प्रसिद्ध महाकाल की सवारी का इंतजार लाखों भक्तों को रहता है। आज सावन का पहला सोमवार है और महाकाल बाबा की पहली सवारी भी निकल रही है भगवान श्री महाकालेश्वर की प्रथम सवारी ठाठ - बाट से परम्परागत मार्ग से निकली बाबा पालकी में भगवान मनमहेश के स्वरूप में अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए नगर भ्रमण पर हैं। 

नगर भ्रमण के दौरान बाबा महाकाल की सवारी जब गोपाल मंदिर पहुंची तो यहां गोपाल मंदिर के पुजारी बाबा महाकाल का पूजन अर्चन करने के लिए मुख्य मार्ग पर आए जहां उन्होंने पालकी में भगवान मनमहेश का पूजन अर्चन कर आरती की इस दौरान हरि और हर का मिलन भी हुआ। याद रहे कि गोपाल मंदिर से बाबा महाकाल की सवारी पटनी बाजार, गुदरी चौराहा 24 खंबा मार्ग से होते हुए पुनः मंदिर पहुंचेगी।

कोई बना देव तो कोई बना दानव
भगवान भोलेनाथ के भक्त भी भोले ही होते हैं, उनका यही भोलापन बाबा महाकाल की सवारी में नजर आता है, क्योंकि इस सवारी में कुछ श्रद्धालु देवता का रूप धारण कर निकलते हैं तो कुछ भूत,पलीत और दानव बनकर। बाबा महाकाल की यह सवारी निराली ही होती है क्योंकि सवारी में कोई झांझ बजाता है तो कोई डमरू। हर कोई सवारी के दौरान अपनी ही मस्ती में मस्त रहता है और बाबा महाकाल का जय घोष करता दिखाई देता है। बाबा महाकाल की सवारी को देखने के लिए श्रद्धालु मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देशभर से उज्जैन पहुंचते हैं और बाबा कि सवारी का दर्शन लाभ लेकर अपने आपको धन्य महसूस करते हैं।

पलक झपकते ही कलाकारों ने बनाई आकर्षक रंगोली
सवारी मार्ग पर बाबा महाकाल के आगमन के पहले कलाकार आकर्षक रंगोली बना रहे थे जो कि इतने कम समय में बनाई जा रही थी जिसे देखकर यह कहा जाए कि पलक झपकते ही कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। सवारी मार्ग पर बनाई जा रही इस रंगोली से चौराहे भी आकर्षक नजर आ रहे थे। 

ऐसा है बाबा महाकाल की सवारी का सफर
महाकाल की सवारी का स्वरूप हर दशक में बदलता रहा है। सवारी निकलने का सबसे पुराना प्रमाण 2100 साल पुराना शिलालेख है, 300 साल पहले सवारी को शाही स्वरूप मिला।

शिलालेख पर भी महाकाल सवारी 
श्रावण में निकलने वाली महाकाल सवारी का अब तक का सबसे प्राचीन उल्लेख 2100 साल पुराने शिलालेख में होने का दावा है। पुराविद् डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित के अनुसार यह शिलालेख गढ़कालिका क्षेत्र से 25 साल पहले मिला था। लिपि शास्त्री डॉ.जगन्नाथ दुबे ने इस पर विक्रम, रुद्र, मोह लिखा बताया। इस पर नंदी पर शिव जाते दिख रहे हैं।

300 साल पहले हुआ था बदलाव
300 साल पहले सिंधिया वंशजों ने सवारी को शाही स्वरूप दिया। जब मंदिर का नव निर्माण कराया तभी से सवारी का नया स्वरूप शुरू हुआ। यह सवारी शाही खर्च और इंतजाम से निकलती थी, इसलिए भगवान को भी राजसी वैभव से भ्रमण की शुरुआत हुई। सवारी मराठा कैलेंडर के अनुसार अमावस्या से अमावस्या तक निकलती थी।

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