प्रारब्ध का संबंध देह तक ही होता है मन से नहीं होता।
देह को प्रारब्ध से सुख दुःख मिलता है। दुःख को कोई नहीं चाहता। किंतु दुःख ... आता ही है ।सुख का भी वैसा ही है.प्रारब्ध यानी कृत कर्मों का फल।
यह अच्छा या बुरा भी हो सकता है। सुख के भोग आएं तो आदमी को कुछ लगता नहीं, किन्तु दुःख का प्रसंग आने पर वह कहता है ~ मैंने भगवान की इतनी सेवा की, मैं फलाने सत्पुरुष का शिष्य हूँ, फिर भी मुझे ऐसा दुःख क्यों भुगतना पड़ता है ?
किन्तु वह यह नहीं समझता कि यह सब उसी के कर्म का फल है, उसमें भगवान या संत क्या करें ? मान लो, हमें कुछ पैसों की जरुरत है,और हमारी पहचान का या करीब का कोई रिश्तेदार किसी बड़े बैंक का मैनेजर है, लेकिन ... हमारे खुद के नाम पर यदि बैंक में पैसा जमा न हो तो वह मैनेजर कुछ भी नहीं कर सकेगा। बहुत हुआ तो वह अपनी खुद की जेब से कुछ पैसे निकाल कर हमें दे देगा।
उसी प्रकार .. हमारे नसीब में यदि सुख नहीं है तो वह हमें कहाँ से मिलेगा ? बहुत हुआ तो कोई संत हमारे दुख को कम करने का कोई मार्ग सुझा सकता है। हल्का करेगा, बस इसलिए अपने प्रारब्ध से प्राप्त भले-बुरे फल हम देह से भोगें और मन से भगवान का स्मरण बनाएँ रखें सच्चा भक्त अपनी देह को भूला हुआ होता है , इसलिए देह के भोग भोगना या न भोगना इन दोनों ही बातों की उसे फ़िक्र नहीं होती।
इसलिए वह भोग टालना नहीं चाहता।जैसे मनुष्य की देह के अवयवों में असमानता होती है वैसे ही मनुष्य के विकार और गुण पूर्वजन्म के संस्कार के अनुसार अर्थात नसीब के अनुसार कम-अधिक मात्रा में आते हैं।हमारी देह को प्राप्त होने वाला भोग हमारे कर्मों का ही फल होता है। किन्तु वह अमुक कर्म का फल है
यह हम नहीं जानते, इसलिए हम उसे नसीब अर्थात प्रारब्ध कहते हैं।संसार में जैसे अनेक बनाव-बिगाड़ होते रहते हैं , वैसे ही हमारी सब बातें प्रारब्ध से होती हैं। हम पर आनेवाली आपत्तियाँ हमारे प्रारब्ध का फल होती हैं। वे भगवान की ओर से नहीं आतीं। वे मेहमान जैसी होती हैं, वे जैसे आती हैं वैसे चली भी जाती हैं।
हम अपनी ओर से उन्हें न लाएँ और प्रारब्ध के कारण आएँ तो घबराएँ नहीं। प्रारब्ध की और ग्रहों की गति देह तक ही होती है। मन से भगवान को भजने में
उनकी ओर से कोई बाधा नहीं होती।भगवान के सिमरन की आदत डाल लें तो हमने प्रारब्ध पर मानो विजय ही प्राप्त कर ली है।हम अभी जो जीवन जी रहे हैं, वह हमारे पिछले जन्मों का प्रारब्ध है, यही भाग्य है। इसे जीते हुए हम जो कर्म करेंगे, वह हमारा अगला प्रारब्ध बनेगा। इसलिए कर्म करना जरूरी है। भाग्य तो अपने आप बनता जाएगा। जो कर्म नहीं करेगा, उसका क्या भाग्य। हम निरंतर अपने दायित्व और कर्तव्यों का कुशलता से पालन करें, यही कर्म है। गीता भी इसी कर्म की पक्षधर है।अतः सदेव सत कर्म करते हुए प्रभु चिंतन में लिप्त रहें।जय जय श्री राधे कृष्णा जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।
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