वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनं!
देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरूं!
- सृजन और संहार की लीला चलती रहती है। बच्चा है, वह जवान होगा, बूढ़ा होगा और फिर मर जाएगा। यह नहीं हो तो फिर शैशव, यौवन और बुढ़ापे की लीला कैसे देखने को मिले। ऐसा न होने से तो जगत की शोभा ही न रहे।
--भगवान की प्राप्ति इस जीवन का लक्ष्य है। यहां बड़े-छोटे बनते रहने में कुछ भी नहीं धरा है। ना जाने---- हम कितनी बार इन्द्र बने होंगे और कितनी बार चींटे।
-- स्वांग के अनुसार जो पार्ट हमें मिला है, हम करें, पर यह याद रखें कि यह नाटक है और अपने खेल को खूब अच्छी तरह खेलकर मालिक को रिझाना है।
- हम इसलिए बार-बार घबड़ा उठते हैं कि संसार- नाटक के पीछे छुपे हुए भगवान को नहीं देखते।
श्री हरि चरणों में कोटि नमन!
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